शरीर में पञ्चतत्व कहाँ है? - Jurney-Dreamland

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सोमवार, 13 जून 2022

शरीर में पञ्चतत्व कहाँ है?

       शरीर में पञ्चतत्त्व कहाँ है?


          वर्षों से बड़े-बुजुर्ग कहते रहे हैं तथा धार्मिक ग्रंथों में भी वर्णन है कि ये शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश आदि पञ्चतत्त्व से बना है। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि यह शरीर हाड़-मांस का पुतला है; यह भी कहा जाता रहा है कि यह शरीर माटी पुतला है।  मगर जब कभी इस विषय पर मनन करते हैं, तो हाड़-मांस तो सही है, ये शरीर में है भी, मगर समझ में नहीं आता कि ये माटी? और फिर ये पञ्चतत्त्व शरीर में आखिर है कहाँ? शरीर में ये पञ्चतत्त्व कार्य क्या करते हैं व कैसे करते हैं?

       यदि शरीर के कुछ क्रियाकलाप देखते हैं तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि चार तत्त्वों का तो मान भी लेते हैं मगर आकाश! इसके इस शरीर में क्या लक्षण है?

         जब तक हम किसी वस्तु-विशेष अथवा व्यक्ति-विशेष के मूल तत्त्व या मौलिक गुण या उसकी विशेषता के विषय में नहीं जानते तब तक हमें उसकी महत्त्वता का ज्ञान नहीं होता है; और उसके मूल तत्त्व या मौलिक गुण या उसकी विशेषता के विषय में जानने के लिए हमें उसके विषय में मनन करना अत्यावश्यक है। अन्यथा इसके अभाव में ही हमारे मन में ऐसे या अन्य किसी भी प्रकार के प्रश्नों का जन्म होता है जो इस प्रासंगिक विषय का माध्यम है।

         ब्रहाण्ड में कुछ अटल सत्य होते हैं जिनमें से एक सत्य यह है कि कोई भी तत्त्व हो, वह अपने अंश को आकर्षित करता है अर्थात उसे अपनी ओर खींच लेता है या यूं कहें कि वह अपने में समा लेता है। इसी सूत्र को लेकर हम अपने उपरोक्त "शरीर माटी का पुतला है", शरीर में पञ्चतत्त्व कहाँ है?" या "आकाश का शरीर में क्या लक्षण है?" इत्यादि प्रश्नों पर आते हैं कि ये शरीर में किस रूप में उपलब्ध है?

          पृथ्वी, जल, अग्नि, तथा वायु आदि तत्त्वों की उत्पत्ति का स्रोत है आकाश।  

         वैज्ञानिक आधार कुछ भी हो मगर ज्योतिषिय आधार पर इनका क्रम है -

आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है।

      अब हम उन पञ्चतत्त्व के गुण जानते हैं। उन पञ्चतत्त्वों में पृथ्वी का गुण है "गन्ध", जल का "रस", अग्नि का "तेज", वायु का "स्पर्श" तथा आकाश का "शब्द", "नाद" या "ध्वनि"।

          हम किसी भी तत्त्व के गुणावगुण को देख नहीं सकते मात्र अनुभव कर सकते हैं। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि कोई भी तत्त्व हो, वह अपने अंश को आकर्षित करता है अर्थात उसे अपनी ओर खींच लेता है या यूं कहें कि वह अपने में समा लेता है। इसी सूत्र को आधार मानकर चलें तो :-

      1.  हम किसी भी प्रकार की गन्ध का, अनुभव कर सकते हैं; गन्ध पृथ्वी का गुण है, इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी तत्त्व हमारे शरीर में उपलब्ध है।

       2. जल के गुण "रस" को भी हम अनुभव करते हैं; और वैसे भी हम जल का उपयोग भी करते हैं, उसका अपने शरीर द्वारा किसी न किसी रूप में निकास भी करते हैं। इसका तात्पर्य है कि जल तत्त्व भी अपने शरीर में उपलब्ध है।

       3. हमारे शरीर के अन्दर जो "तेज" अर्थात ऊर्जा उत्पन्न होती है वह अग्नि से ही होती है। इससे स्पष्ट है कि "अग्नि" तत्त्व भी हमारे शरीर में उपलब्ध है।

         4. वायु को देख नहीं सकते मगर हम उसके "स्पर्श" को अनुभव कर लेते हैं", ये "स्पर्श" वायु का गुण है; तथा हम किसी भी प्रकार के स्पर्श का अनुभव करते हैं इसका कारण यही है कि अपने शरीर में उपलब्ध वायु तत्त्व अपने गुण "स्पर्श" को आकर्षित करता है।

       5. आकाश तत्त्व का गुण है "शब्द", "नाद" या "ध्वनि"। वैसे आकाश को शुन्य माना गया गया है। शुन्य से ही "शब्द" की उत्पत्ति होती है और शब्द से "ध्वनि" की उत्पत्ति होती है; आकाश के शुन्य होने के कारण ही ये ध्वनि उत्पन्न होती है और ध्वनि उत्पन्न होकर हमारी श्रवणेन्द्रिय में पहुँचती है। जैसे किसी खाली कमरे में कोई आवाज करते हैं तो आवाज गूँजती है जबकि यदि वही कमरा सामान से भरा हुआ हो, तो हमारी आवाज उसमें गूँजती नहीं है। इसी भाँति यदि आकाश शून्य नहीं होता तो हम किसी भी प्रकार की कोई ध्वनि नहीं सुन पाते। कोई भी मनुष्य किसी से भी कोई बात कहता तो उसकी बात किसी भी प्राणी के श्रवणेन्द्रिय तक नहीं पहुँच पाती। कौन क्या कह रहा है कुछ भी नहीं सुन पाते। अब इस बात पर विज्ञान को मानने वाले का अथवा अन्य किसी भी व्यक्ति का ये प्रश्न उठता है कि यदि कोई मनुष्य एकदम से गूंगा या बहरा हो, वो कैसे सुन पाता है अथवा समझ पाता है?

           इस हेतु ईश्वर सबके लिए कोई न कोई व्यवस्था पहले से ही उपलब्ध किये रहते हैं। ऐसे मनुष्यों के लिए जो एकदम से गूंगा या बहरा हो उनके लिए "संकेत ध्वनि" है। वे मनुष्य संकेत ध्वनि के माध्यम से सुन पाते हैं व संकेत ध्वनि के माध्यम से कह पाते हैं।

          हम किसी भी प्रकार के "शब्द", "ध्वनि" अथवा किसी की बात सुन पाते हैं तो इसका कारण यही है कि हमारे शरीर के अन्दर उपलब्ध आकाश तत्त्व ही इसे अपनी ओर आकर्षित करता है तथा इसी कारण हम किसी भी प्रकार के "शब्द", "ध्वनि" अथवा किसी की बात सुन पाते हैं।

           इन उपरोक्त सभी पाँचों बिन्दुओं द्वारा ये स्पष्ट हो जाता है कि हमारे शरीर में ये पाँचों तत्त्व उपलब्ध है।

        मगर विज्ञान इस बात को कदाचित स्वीकार नहीं करता है। विज्ञान का मानना है कि नाक है तो हम किसी भी प्रकार की गन्ध अर्थात महक को सूंघ पाते हैं अगर नाक नहीं होती तो हम महक का अनुभव नहीं कर पाते; जल तो हमारे शरीर की आवश्यकता है ये शरीर के रोगों को ठीक करता है, अपशिष्ट पदार्थ के रूप में हम अपने शरीर द्वारा जल का उत्सर्जन भी करते हैं; त्वचा के कारण ही हम किसी के छूने का अनुभव कर पाते हैं अन्यथा नहीं; अगर कान नहीं होते तो सुन नहीं पाते, मुँह नहीं होता तो हम खा-पी नहीं सकते थे आदि-आदि।

         मगर विज्ञान के अभ्यर्थियों को ये ज्ञात नहीं है कि हमारे शरीर में उपलब्ध पृथ्वी, जल, अग्नि,  वायु तथा आकाश आदि पञ्चतत्त्व जब तक गतिशील रहते हैं तब तक ही आपके सारे तथ्य मान्य है, तथा जब ये पञ्चतत्त्व शान्त हो जाते हैं तब आपके सारे तथ्य निराधार है। क्योंकि मान्यवर आँख, कान, नाक, मुँह, तवचा आदि सभी अंग तो मुर्दा शरीर में भी होते हैं; वो तो न देख पाते हैं ना वो सुन पाते हैं, न खा-पी नहीं सकते तथा न सूंघ पाते हैं; ऐसा क्यों?  क्योंकि उनमें वो पञ्चतत्त्व शान्त हो जाते हैं।

         विज्ञान का तात्पर्य है ज्ञान के द्वारा सत्य की खोज करना, उसे झुठलाना नहीं।

★हरि ॐ तत्-सत् ।। जय श्रीकृष्ण ।।★


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