हिन्दू तथा हिन्दुस्तान शब्द की उत्पत्ति किस युग में हुई - Jurney-Dreamland

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रविवार, 15 मई 2022

हिन्दू तथा हिन्दुस्तान शब्द की उत्पत्ति किस युग में हुई

 हिन्दू तथा हिन्दुस्तान शब्द की उत्पत्ति किस युग में हुई



            कुछ दिन पहले मेरे पास एक मनुष्य का संदेश आया; कौन है मैं नहीं जानता, कदाचित वह मेरा पाठक ही हो सकता है। हालांकि उसका अपने संदेश में अपने ज्ञानी होने का प्रमाण प्रस्तुत करने का एक प्रयास था, मगर उसके संदेश से यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि उसने वास्तविक शास्त्रों के बजाय आजकल के कट्टरपंथियों द्वारा काट-छांटकर अपनी कट्टरपंथी का तड़का लगाकर तैयार की गई पुस्तकों का ही अध्ययन किया है, जिससे उसके ज्ञानी के बजाय उसकी मूर्खता को प्रमाणित कर रहा था। उसके संदेश के इस संकेत * चिन्ह से चिन्हित कुछ पंक्तियों के साथ उसके प्रति-उत्तर में वास्तविक वेद-शास्त्रों में वर्णित सत्य तथ्यों का वर्णन इस संकेत 👉 चिन्ह द्वारा प्रस्तुत कर रहा हूँ।

विशेष :---  शुरू से लेकर अन्तिम शब्द तक पूरा लेख पढ़ें। बीच में से शुरू किया अथवा बीच में ही छोड़ दिया तो कुछ भी समझ में नहीं आएगा।  जैसे वो कहावत है "अधजल गगरी छलकत जाय..." अतः पूरा लेख पढ़ें।

*हिन्दू कौन है क्या आप जानते है, नहीं जानते है  तो पढ़े........

"हिन्दू"* शब्द की खोज -
*"हीनं दुष्यति इति हिन्दूः से हुई है।”*

*अर्थात* जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं।

* 'हिन्दू' शब्द, करोड़ों वर्ष प्राचीन, संस्कृत शब्द से है!

👉 उन करोड़ों वर्ष पूर्व में मात्र संस्कृत और संस्कृति ही थी। तब ही नहीं अनादिकाल से ये समस्त भूमि आर्यवर्त तथा आर्यभूमि के नाम से जानी जाती थी :-  जिसका ये मंत्र "आर्यावर्तांतर्गत ब्रह्मवर्तैक देशे पुण्यक्षेत्रे..."  स्पष्ट उदाहरण है, जो आज भी किसी मांगलिक कार्य के शुभारंभ के समय संकल्प लेते समय बोला जाता है।

*यदि संस्कृत के इस शब्द का सन्धि विछेदन करें तो पायेंगे ....
*हीन+दू* = हीन भावना + से दूर

*अर्थात* जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !

👉 आपका ये संधि विच्छेद द्वारा बताया गया उदाहरण भी प्राथमिक कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के जैसा ही है। यथा-
     "हिन्दू" शब्द में "हि" छोटा व न् आधा उच्चारित शब्द है जबकि आपके "हीन" शब्द में इस छोटे "हि" को बड़ा "ही" दर्शाया गया है तथा इस आधे उच्चारित शब्द "न्" को पूरा "न" दर्शाया गया है, ऐसे- "हीन" और फिर इस "हिन्दू" शब्द में आपका "हीन+दू" भी चलिये कुछ पल के लिए मान लेते हैं मगर इस "हिन्दू" शब्द के बीच कोई अन्य अक्षर तो है ही नहीं, फिर ये "भावना" शब्द बीच में कहाँ से आ गया? अन्य भाषाओं में अक्षरों में लगने वाली भले ही छोटी-बड़ी "मात्राओं" का अर्थ बदल जाये ।
      जैसे:- एक शब्द है-  "दिन" तथा दूसरा शब्द है- "दीन"।  "दिन" समयचक्र की गणना का कुछ विशाल भाग तथा "दीन" इसी समयचक्र में उलझे भांति-भांति के प्राणियों की श्रेणियों में गरीब श्रेणी की ओर इंगित करने वाला शब्द।  मगर संस्कृत भाषा में इन छोटी-बड़ी "मात्राओं" का विशेष रूप से ध्यान रखा गया है। संस्कृत भाषा का नियम है कि छोटी-बड़ी "मात्राओं" के उच्चारण का नाद भी उसी मात्रा के हिसाब से ही होता है।
      चलिये हम अपने इस संधिविच्छेद वाले उत्तररूपी उदाहरण को हम वापिस समेट लेते हैं अर्थात नजरअंदाज कर देते हैं; हालांकि हम आपकी इस बात से तो किसी भी परिस्थिति में सहमत नहीं होंगे कि आपकी ये उदाहरण स्वरूप दी गई बातों का वेद में उल्लेख मिलता है, मगर हाँ, हम आपकी इस बात का, "वेद में उल्लेख मिलता है" इसको नहीं, मात्र इस बात के भावार्थ को अवश्य स्वीकार कर लेते हैं कि :-
*हीन+दू* = हीन भावना + से दूर

*अर्थात* जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !
  👉 हाँ, आपकी ये बात सत्य मान लेते हैं कि "जो हीन भावना या दुर्भावना से दूर रहे, मुक्त रहे, वो हिन्दू है !"
       मगर जो हीन-भावना से ग्रसित है वो तो हिन्दू नहीं हो सकते न? क्योंकि इस बात का अन्य तरीके से एक उच्च स्तरीय विचार के रूप में जो उल्लेख वेद में आया है, वो है:- "वसुधैव-कुटुम्बकम" अर्थात धरती वासी समस्त मानव समुदाय एक परिवार है। इसलिए समस्त मानव को एक-दूसरे के प्रति हीन-भावना से दूर रहकर आपस में प्रेम व भाईचारे से रहना चाहिए।
           अब फिर से अपने मुद्दे पर आते हैं:- आपने कहा- "जो हीन भावना से दूर हो वही हिन्दू है।" आपका ये विचार अति उत्तम है। मगर, जो जाति-पाँति तथा धर्म-सम्प्रदायों के नाम पर लोगों में एक दूसरे प्रति विष घोलने का कार्य करते हैं,  धर्म-मजहब के नाम पर जिनमें हीन-भावनाएं है वो लोग तो हिन्दू कदापि नहीं हो सकते। बस, यही विचार हम प्रत्येक मनुष्य में देखना चाहते हैं।
           अब चर्चा करते हैं आपकी अगली बात पर-
आपकी अगली बात है-:-
*हमें बार-बार, सदा झूठ ही बतलाया जाता है कि हिन्दू शब्द मुगलों ने हमें दिया, जो *"सिंधु" से "हिन्दू"* हुआ l

👉 मेरे इस उपरोक्त उत्तर से अब तक तो आपको ज्ञात हो गया होगा कि सत्य क्या है तथा झूठ क्या है?

*हिन्दू शब्द की वेद से ही उत्पत्ति है !*

👉 सबसे पहले तो आप जानिए कि वेदों की उत्पत्ति कैसे हुई?
          सर्वप्रथम प्रणवाक्षर की उत्पत्ति हुई: प्रणवाक्षर से त्रिपदा-गायत्री की उत्पत्ति हुई; त्रिपदा गायत्री तथा ब्रह्माजी के संग से वेद की उत्पत्ति हुई तथा वेद से शास्त्रों-पुराणों की उत्पत्ति हुई।
          ईश्वर द्वारा इन सबकी उत्पत्ति किसी विशेष धर्म-सम्प्रदाय अथवा किसी जाति- विशेष हेतु नहीं की गई थी अपितु जगत् की सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण हेतु की गई थी। जाति-पांति, धर्म-सम्प्रदाय जैसे भेदभाव उत्पन्न करने वाले शब्द तो ईश्वर के स्वभाव में ही नहीं है। ईश्वर की दृष्टि में जगत् के सभी मानव पुत्रतुल्य हैं, तो स्पष्ट है कि किसी भी तरह का भेदभाव उत्पन्न करने वाले शब्दों की ईश्वर के द्वारा उत्पत्ति स्वभाविक ही नहीं है। क्योंकि ईश्वर की दृष्टि व स्वभाव में किसी के भी प्रति भेदभाव नहीं है।
           किसी के भी प्रति भेदभाव करना तो मनुष्य का स्वभाव है; वह भी उन मनुष्यों का जो अज्ञानी हैं, मूर्ख हैं, जो स्वार्थवश संसार की सत्, रज, तम रूपी माया में उलझे हुए हैं; जो ईश्वर की महिमा से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं।
ऐसे मूर्ख मनुष्यों द्वारा ही ईर्ष्यावश ऐसे भेदभाव उत्पन्न करने वाले शब्दों की उत्पत्ति हुई है न कि ईश्वर के द्वारा।
           ईश्वर मनुष्यों की पहचान जाति-पांति अथवा धर्म-सम्प्रदाय से नहीं करता है अपितु उनके कर्मों से करता है। तो फिर जाति-पांति अथवा धर्म-सम्प्रदाय जैसे भेदभाव उत्पन्न करने वाले शब्दों की उत्पत्ति करना ईश्वर ने किञ्चितमात्र भी आवश्यक नहीं समझा; इसीलिए  ईश्वर ने वेदों अथवा शास्त्र-पुराणों में इन शब्दों की उत्पत्ति नहीं की।
           तो इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि आपकी इस मिथ्या बात *हिन्दू शब्द की वेद से ही उत्पत्ति है !* का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है।
            अतः आपकी ये बातें हर प्रकार से महत्वहीन है।

*जानिए, कहाँ से आया हिन्दू शब्द, और कैसे हुई इसकी उत्पत्ति ?
*कुछ लोग यह कहते हैं कि *हिन्दू शब्द सिंधु से बना है* औऱ यह फारसी शब्द है। परंतु ऐसा कुछ नहीं है!
ये केवल झुठ फ़ैलाया जाता है।

👉 सत्य से आप भी पूर्णतया अनभिज्ञ है।
           एक चतुर्युग अर्थात चार युग (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग) का एक महायुग होता है। एक हजार चतुर्युग व्यतीत होने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है उतनी ही अवधि काल की रात्रि; दोनों योग से एक अहोरात्र होता है, अर्थात दो हजार चतुर्युग व्यतीत हो जाने पर एक अहोरात्र होता है। इस  अवधिकाल से एक सौ वर्ष पूर्ण होने पर ब्रह्मा भी शान्त हो जाता है। इसी अवधिकाल से वर्तमान ब्रह्मा के पचास वर्ष पूर्ण होकर इक्यावनवें वर्ष में प्रवेश हो चुके हैं; इससे पूर्व जितने भी ब्रह्मा हुए हैं उन सबकी हम चर्चा नहीं कर रहे हैं, मात्र वर्तमान ब्रह्मा की चर्चा कर रहे हैं; तो वर्तमान ब्रह्मा की अवधिकाल से गणना करने पर 3,60,00000 (तीन करोड़ साठ लाख चतुर्युग व्यतीत हो चुके हैं। उन सभी चतुर्युगों को छोड़ देते हैं तथा हम मात्र वर्तमान के इसी चतुर्युग की चर्चा करें तो इसमें राजा हरिश्चन्द्र व इक्ष्वाकु वंश के शासनकाल में भी ये समस्त भूमि आर्यावर्त के नाम से जानी जाती थी और मानव आर्यपुत्र के नाम से; फिर  चक्रवर्ती राजा दशरथ व भगवान श्रीराम के समय में भी उसी नाम से  जानी जाती थी अर्थात आर्यवर्त व आर्यपुत्र के नाम से, उसके पश्चात भगवान श्रीकृष्ण के समय में भी इसी नाम से जानी जाती थी। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस *हिन्दू**हिन्दुस्तान* की उत्पत्ति सतयुग, त्रेतायुग तथा द्वापरयुग काल तक तो नहीं हुई थी, तो स्पष्ट है द्वापरयुग के पश्चात हुई है अर्थात कलियुग में ही इन शब्दों की उत्पत्ति हुई है इससे पूर्व तो नहीं।
        अब इसके पश्चात इस विषय में आपका कोई भी उदाहरण कुछ भी मायने नहीं रखता है। फिर भी आपको पूर्णरूप से संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं -
      (द्वापरयुग में किन शब्दों की उत्पत्ति हुई तथा कैसे हुई? इसका विस्तार भी इसी चर्चा में आगे दिया जाएगा।)
      
*हमारे "वेदों" और "पुराणों" में *हिन्दू शब्द का उल्लेख* मिलता है। आज हम आपको बता रहे हैं कि हमें *हिन्दू* शब्द कहाँ से मिला है!

👉 वास्तविक सत्य:- वास्तविक वेद-पुराणो में इन शब्दों का कहीं भी, कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है।

*तं देवनिर्मितं देशं*
*हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।*

👉 मैं पहले भी अवगत करवा चुका हूँ, फिर से अवगत करवा दूँ कि वास्तविक जो चारों वेद थे उन वेदों की उत्पत्ति अनादिकाल में स्वयं ब्रह्माजी तथा गायत्री के द्वारा हुई थी। उस समय हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुस्तान, ये तीनों ही शब्दों की उत्पत्ति नहीं हुई थी, तो स्पष्ट है कि उन अनादिकाल के अथवा पौराणिक काल के किसी भी शास्त्रों में इन शब्दों का उल्लेख मिलना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।

*हेतिभिः श्त्रुवर्गं च*
*स हिन्दुर्भिधियते।”*

अर्थात :- जो अपने तप से शत्रुओं का, दुष्टों का, और पाप का नाश कर देता है, वही हिन्दू है !

👉शास्त्रोक्त विधान से जप-तप में सिद्धि प्राप्त करने वाला कोई भी मानव लोक-हितार्थ भावना से इस विद्या का सदुपयोग करे; तो अपने शत्रुओं का, दुष्टों का, और पाप का नाश कर देता है, इसमें जाति-विशेष का कोई महत्त्व नहीं है; ये तो अपने विवेक पर निर्भर है कि वो अपनी इस विद्या का सदुपयोग करता है अथवा दुरुपयोग।
            "हिन्दू"  अथवा "हिन्दुस्तान" शब्द की उत्पत्ति को लेकर आपकी इन बातों में रत्तीभर भी सत्यता नहीं है, आदिकाल में जब ईश्वर द्वारा इन समस्त वेद-शास्त्रो, पुराणों अथवा ग्रंथों की उत्पत्ति हुई अथवा जब ईश्वर ने इन सबकी रचना की तब जाति-सम्प्रदायों के लिए नहीं की गई अपितु समस्त मानव जाति के कल्याण हेतु की गई थी; और वैसे भी ये सनातन सत्य है कि जाति-पांति का भेदभाव मूर्ख लोगों के विचार है न कि ईश्वर के। ईश्वर की दृष्टि में सब प्राणी एक समान है; तो स्पष्ट है कि उन सनातन काल के वास्तविक वेद-शास्त्रो, पुराणों अथवा धर्मग्रंथों में जाति-सम्प्रदायों से संबंधित शब्दों का उल्लेख मिलना किसी भी भांति सम्भव नहीं है।
         ये मूर्ख लोगों की खुरापाती है तथा आपके इन खुरापाती दिमाग से काट-छांटकर बनाये गए उदाहरणों पर कोई मूर्ख लोग ही विश्वास कर सकते हैं, वास्तविक धर्मशास्त्रों का ज्ञान अथवा विवेक रखने वाले विद्वान नहीं।
    
*बुराइयों को दूर करने के लिए सतत प्रयासरत रहनेवाले, सनातन धर्म के पोषक व पालन करने वाले हिन्दू हैं।
  *"हिनस्तु दुरिताम🙏🏻🙏🏻

👉 जब ये स्पष्ट है कि उन अनादिकाल के अथवा पौराणिक काल के किसी भी शास्त्रों में इन शब्दों का उल्लेख मिलना किसी भी प्रकार सम्भव ही नहीं है, तो फिर किसी भी पौराणिक शास्त्रों की आड़ में इन तीनों शब्दों के विषय में किसी भी प्रकार का उदाहरण देना व्यर्थ है; तथा जब इस प्रकार के उदाहरण देना ही व्यर्थ है तो सब कुछ व्यर्थ है।
            चलो फिर भी इस व्यर्थ की बकवास पर आँख मूंदकर विष का घूँट पीकर कुछ पल के लिए आपके ये उपरोक्त उदाहरण मान भी लेते हैं, तो बताईये, क्या आज जो हिन्दू है वो आपके इन उदाहरणों पर सटीक रूप से खरे हैं? रत्तीभर भी नहीं; और जब रत्तीभर भी खरे नहीं है, तो खुरापाती लोगों द्वारा शास्त्रों के साथ छेड़खानी कर वास्तविक शब्दों को तोड़-मरोड़कर शास्त्रों का अपमान करने वाले ऐसे मूर्ख लोगों के लिए क्या दण्ड होना चाहिए? मेरे विचार से ऐसा भयानक से भयानक दण्ड होना चाहिए जिसे सुनकर भविष्य में ऐसी घिनौनी हरकत करने वाले मूर्ख लोग ऐसी हरकत करने के बारे में सोचने से पूर्व ही भयानक रूप से दहल जाएं।

*औरो को भी बतायें, शेयर करें।

   👉 क्षमा करें, हम आपके इस मूर्खतापूर्ण बातों को लोगों तक पहुंचाने में आपका रत्तीभर भी सहयोग नहीं करेंगे।
          हम वास्तविक वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणकुल से हैं; जगत् के सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण हेतु सत्य मार्गदर्शन करना हमारा स्वभाविक कर्म है।
         हम आपके इस प्रसंग से हम किसी भी भांति सहमत नहीं हैं, क्योंकि हमारे किसी भी पुरातन-सनातन पुराणों अथवा शास्त्रों में हिन्दुस्तान अथवा हिन्दू शब्द का कहीं भी कोई भी किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया हुआ है। ये जो आपने वेदों में वर्णित हिन्दुस्तान अथवा हिन्दू शब्द का उदाहरण प्रस्तुत किया है, ये कलियुग के उन कट्टरपंथियों की खुरापाती है जो संस्कृत व्याकरण की जानकारी रखते हैं।
         आदियुग के पुराणों व शास्त्रों से ये स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि वर्तमान से पूर्व पूर्वान्तरकाल तक में सभी नगर व राज्यों के नाम कुछ और ही थे। फिर कालांतर में, मध्यांतर में और वर्तमान में कलिकाल के सत्ताधारियों ने अपने शासन तथा नाम-प्रसिद्धि के चलते नगर व राज्यों के नामों में परिवर्तन करते रहे हैं।
         आदिकाल में मात्र मानव जाति की ही उत्पत्ति हुई थी अन्य किसी भी जाति अथवा धर्म-सम्प्रदाय की उत्पत्ति नहीं हुई थी। उस समय मानवजाति में किसी भी प्रकार का कोई आपसी भेदभाव नहीं था। उसी मानव जाति को ईश्वर ने मात्र चार वर्णों में विभाजित किया:- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। इन चारों वर्णों के मनुष्यों को ईश्वर द्वारा ही उनके वर्णानुसार उन्हें अलग-अलग कार्यो की जिम्मेदारी सौंपी गई। इन चारों वर्णों के अलावा कोई भी अन्य समुदाय अथवा सम्प्रदाय नहीं था। जिसका प्रमाण
         श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 18 के श्लोक सं. ४२, ४३ तथा ४४, पृष्ठ सं. ३५७ में मिलता है:-
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।४२।।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।४३।।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।४४।।
(इसका भावार्थ पृष्ठ सं. 371 व 372 पर)
         अर्थात धर्म के लिए कष्ट सहन करना, इन्द्रियों का दमन, क्षमाभाव एवं मन, इन्द्रियाँ और शरीर की सरलता, आस्तिक बुद्धि, शास्त्र-विषयक ज्ञान द्वारा मानवजाति को परमात्मतत्त्व का अनुभव कराना तथा उनका सत्य मार्गदर्शन करना, ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म है।
        शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और धर्मयुद्ध हेतु सदैव तत्पर रहना, दान और स्वामीभाव अर्थात निःस्वार्थ भाव से सबका हित सोचकर शास्त्राज्ञानुसार शासन द्वारा प्रेम सहित पुत्रतुल्य प्रजा का पालन करने का भाव, ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म है।
      खेती, गौपालन और क्रय-विक्रय, दान-धर्म, सत्य व्यवहार अर्थात पूरी निष्ठा व ईमानदारीपूर्वक मापतौल से सभी वर्णों को यथोचित सामग्री वितरण करना, ये सब वैश्य के स्वाभाविक कर्म है।
           तथा प्रेमसहित सभी वर्णों की सेवा करना, ये शूद्र का स्वभाविक कर्म है।।
           उस समय सभी मनुष्य अपने-अपने वर्णानुसार अपना कार्य करने में प्रसन्नता का अनुभव किया करते थे; आजकल के मनुष्यों की भांति अपने कर्म करने में घृणा नहीं समझते थे, एक-दूसरे वर्ण से किसी भी प्रकार का भेदभाव अथवा ईर्ष्या नहीं करते थे, अपितु अपने-अपने कर्म करते हुए एक-दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक रहते हुए प्रसन्नता का अनुभव किया करते थे।

        अनादिकाल से ही समस्त भूमि आर्यव्रत के नाम से जानी जाती थी तथा मानवजाति आर्य के नाम से। फिर युग-युगांतरो पश्चात द्वापरयुग में राजा भरत ने हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक अपने शासन का विस्तार किया और वो चक्रवर्ती राजा बना। उसी चक्रवर्ती राजा भरत के शासनकाल में उनके सुशासन व उनकी प्रत्येक मानव के प्रति कल्याणकारी सोच तथा सुनैतिक कार्यों के चलते उन्हीं के नाम से इस भूमि का एक और नाम उद्धरित हुआ "भरतभूमि",  और मानवजाति का नाम भी "भारत" हुआ। किसी को सम्बोधन करते थे, तो "हे भारत" कहकर। इसी "भरतभूमि" से कालांतर में "भारतभूमि" तथा फिर समयांतर में "भूमि" शब्द हटा दिया गया और केवल "भारत" नाम हुआ।
            इसका तथ्य यह भी है कि द्वापरयुग में धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने गीतोपदेश देते हुए अर्जुन को उन सभी नाम से संबोधन किया जिससे अर्जुन का किसी न किसी प्रकार से सम्बंध था;  चाहे वो  अपनी माता का नाम हो, वंश हो, देश हो, शस्त्र हो अथवा उसके कार्य करने के तरीकों से संबंधित हो; जैसे - हे अर्जुन, हे पार्थ, हे कुरुश्रेष्ठ, हे कुरुनन्दन, हे गुडाकेश, हे धनञ्जय, हे सव्यसाचिन्, हे पृथापुत्र, हे भरतवंशी, यहाँ तक कि "हे भारत" कहकर भी सम्बोधित किया। जैसे पूर्व में बताया जा चुका है कि राजा भरत के शासनकाल में इस भूमि का एक और नाम उद्धरित हुआ "भरतभूमि" और मानवजाति का नाम भी "भारत" हुआ।
          परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने कहीं भी कभी भी अर्जुन को "हे हिन्दू" अथवा" हे हिन्दुस्तानी" के नाम से सम्बोधित नहीं किया; क्यों?
          क्या उस सर्वशक्तिमान अनंतकोटि ब्रह्माण्डनायक, जिसकी इच्छा के बिना उन अनंतकोटि ब्रह्माण्डों में से किसी भी ब्रह्मांड के किसी भी क्षेत्र में एक पत्ता तक नहीं हिलता है, उस भगवान श्रीकृष्ण को आपके इस "हिन्दू" अथवा "हिन्दुस्तान" नाम के विषय में ज्ञात नहीं था; या फिर भगवान श्रीकृष्ण को आपके इन नामों से घृणा थी अथवा किसी प्रकार की ईर्ष्या थी?
          ऐसा कुछ भी नहीं है वास्तविक सत्य तो यही है कि अनादिकाल से उस युग तक अर्थात द्वापरयुग तक "हिन्दू" अथवा "हिन्दुस्तान" जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई ही नहीं थी।
           अतः द्वापरयुग तक किसी भी भाँति "हिन्दू" या "हिन्दुस्तान" नाम का शब्द किसी भी प्रकार की चर्चा में नहीं था।
        ये नाम तो कलियुग के उन सत्ताधारियों की उपज है जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए  लोगों की एकता व आपसी भाईचारे को तोड़ने के तुच्छ विचार पाले हुए हैं, ईश्वर द्वारा रची गई बिना भेदभाव वाली सृष्टि के लोगों को भड़काकर एक-दूसरे के प्रति विष घोलने वाली तुच्छ नीति अपनाने वाले लोगों की विकृत मानसिकता की उपज है ये सब और कुछ नहीं। आपकी इन उदाहरण स्वरूप लिखी गई बातों का सत्यता से 36 का आंकड़ा है; वास्तविक सत्य यही है।

  ★★★हरि ॐ तत्-सत् ।। जय श्रीकृष्ण ।।★★★

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